Krishi Gyan - कृषि ज्ञान: तिल का पर्णाभत्ता (फाइलोडी) रोग एवं नियंत्रण

तिल का पर्णाभत्ता (फाइलोडी) रोग एवं नियंत्रण

तिल शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों की प्रमुख तिलहनी फसल है, जो मुख्यरूप से खरीफ ऋतु में लगाई जाती है। तिल के उत्पादन को प्रभावित करने वाले कारकों में कीट एवं व्याधियों का प्रमुख योगदान माना जा सकता है। यदि रोग की बात की जाय तो तिल का पर्णाभत्ता (फाइलोडी) नामक रोग महत्वपूर्ण है जो फाईटोप्लाज्मा (एम.एल.ओ.) द्वारा होता है, तथा इस रोग के प्रसारण मे पत्ती फुदका (ओरोसियस अल्बिसिंटस) कीट रोगवाहक का कार्य करता है। यह फाइटोप्लाज्मा पत्ती फुदका कीट के जीवित रहने तक उसके शरीर में रहता है तथा हरा तेला (जेसिड) इस रोग को और आगे फैलाने के लिए उत्तरदायी होता है। इस रोग से गृसित पौधे के सभी ऊपरी पुष्पन भाग हरी पत्तियों की संरचना मे बदल जाते है, इसके साथ ही फूलों वाले उन भागों मे कई शिराएँ निकल आती है। गंभीर संक्रमण की स्थिति मे पूरे पुष्पक्रम छोटी एवं मुड़ि हुई पत्तियों मे बदल कर छोटे पर्वान्तर के साथ तने पर पास-पास संयोजित हो जाते है, जो गुच्छों के रूप मे दिखाई देते है, तथा शाखाएँ असामान्य हो कर नीचे की ओर झुक जाती है। अंत मे पौधे झाडू (विच ब्रूम) की तरह दिखते है। यदि कैप्सूल पौधे के निचले हिस्से पर बनते है तो वे गुणवत्ता वाले बीज नहीं बन पाते है।

नियंत्रण:- फाइटोप्लाज्मा के वाहक कीट पत्ती फुदका एवं हरा तेला की निगरानी रखते हुए समय पर इनका नियंत्रण किया जाना चाहिए। इसके लिए डाईमेथोएट 30 ई.सी. को 1.2 लीटर या ईमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. को 200 मि.ली. प्रति हैक्टेयर की दर से 600 लीटर पानी मे मिलाकर छिड़काव करें।